आदोलन और परिकल्पना का महत्व परिपूर्ण हो सकता है, जब दोनों को एक ही सिक्के के दो पहलू माना जाए।  'व्यवहारिक कार्यों के बोझ' से लेकर 'अभिव्यक्ति करने की स्वतंत्रता', को सिद्धातवादी मानकर, आज के भारतीय परिपेक्ष्य में संरचनात्मक समीक्षा करना मुश्किल है। फ़िलिस्तीन, भी अपने जीवन संघर्ष के साथ - साथ बोलने की स्वतंत्रता रखे हुए है, मगर भारत देश, राजनीतिक उदासीनता को ओढ चुका है जैसे मानो स्वतःस्फूर्त्तता की क्षमता खत्म हो गई है। "Reporters without Borders", के द्वारा यह पता चलता है कि 2024 में 180 देश की पत्रकारिता के क्षेत्र में, भारत का स्थान 159 है। 
वापस, अगर भारतीय प्रभुता को समझना है, तो यह निष्कर्ष निकल सकता है कि किसी देश में क्रान्तिकारी विचार का संकट आने, के बाद, प्रतिक्रिया और आलोचनात्मक-व्यावहारिकता में कमी आने लगती है जैसे कि Susan Sontag ने कहा "Questions about knowledge are not, historically, photography's first Line of Defense. The earliest Controversies center on the question Whether photography's fidelity to appearances and dependence on a machine did not prevent it from being a fine Art..." कहानी समीक्षा के नाम पर या कला के नाम पर, एक साथ सामूहिक शोषण का बाजार भारत के विभिन्न स्थानों में कृतियों का महाकाव्यात्मक चित्रण करने की होड़ में, हास्यपद बनता जा रहा है। वहीं दूसरी तरफ भारतीय किसान आंदोलन का मानवीय परिणाम कुछ सप्ताह में आ जाएगा। मगर आप हमारी बातों का बुरा मत मानिएगा, ऐसे में "स्वतंत्रता", "क्रांति", "कला" से लेकर "रोजगार" जैसे शब्द "किसान ओक गेब्रियल" की कहानियों में ही नैतिक दिखते हैं। 


camera - nikon fm 10, film - fomapan iso 400
 photontology
June 2024

You may also like

Back to Top